नैनीताल तक क्यों नहीं पहुंच सकी ट्रेन, 135 साल पहले अंग्रेज रेल लाना चाहते थे लेकिन ऐसा क्या हुआ जो नैनीताल तक नही पहुँच सकी ट्रैन, आइए जानते है इस का कारण
नैनीताल– क्या आपने कभी सोचा है कि नैनीताल तक कभी ट्रेन क्यों नहीं पहुंच सकी। दरअसल 1889 तक नैनीताल नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंसेस का एक महत्वपूर्ण नगर बन चुका था, पर नैनीताल आने-जाने के लिए यातायात की किफायती और आरामदायक व्यवस्था अभी तक नहीं हो सकी थी। वही आने-जाने के लिए बैलगाड़ी, तांगा और इक्कों का ही सहारा था। तब ये साधन भी ब्रेबरी तक ही उपलब्ध थे। घोड़े से या फिर पैदल ही नैनीताल आया जा सकता था।
लेकिन ब्रिटिश सरकार ने आज से 135 साल पहले नैनीताल तक रेल पहुंचाने का सपना संजो लिया था। 24 अक्टूबर, 1884 को कुमाऊं के काठगोदाम तक रेल आ गई था। इससे पहले 1881 में अंग्रेज शिमला और दार्जिलिंग तक रेल पहुंचा चुके थे। दो वर्ष की अल्पावधि में सफलतापूर्वक दार्जिलिंग तक रेलवे ट्रैक बिछाकर ट्रेन चलाने से उत्साहित अंग्रेज अपने पसंदीदा हिल स्टेशन नैनीताल को भी रेलवे से जोड़ने के लिए आतुर थे।
काठगोदाम से नैनीताल तक रेल की पटरियां बिछाने के लिए कर्नल सीएस थॉमसन की देखरेख में 1889 में पहला सर्वे हुआ। अगस्त 1889 में कर्नल थॉमसन ने पहली बार नैनीताल रेल योजना का प्रस्ताव तैयार कर सरकार को भेज दिया। जिसके बाद उनके काम करने के तरीके की मांग और सरकार की अनदेखी के चलते रेल योजना ठंडे बस्ते में चली गई।
नैनीताल के प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर अजय रावत बताते हैं कि 1857 के बाद अंग्रेजों ने नैनीताल के लिए रेल लिंक की जरूरत को महसूस किया था। इससे पहले साल 1888 में काठगोदाम से नैनीताल तक रोपवे संचालन की योजना थी लेकिन पैसे के अभाव के चलते रोपवे का संचालन नहीं हो पाया था। वही साल 1891 में कर्नल थॉमसन ने काठगोदाम से लेकर तल्लीताल तक अन्य हिल स्टेशन की तर्ज पर ट्रैंप वे (छोटी ट्रेन) चलाने की योजना बनाई।
23 किलोमीटर प्रति घंटा थी स्पीड–
इस ट्रेन की स्पीड 23 किमी प्रति घंटा होती थी। जो कि पूर्णतः हाइड्रो इलेक्ट्रिक ट्रेन को चलाने का निर्णय लिया गया। इसके लिए बाकायदा हाइड्रो इलेक्ट्रिसिटी के लिए तल्लीताल डांठ को चुना गया और साथ ही गर्मियों के सीजन में हाइड्रो इलेक्ट्रिक ट्रेन के संचालन के लिए विकल्प के तौर पर भीमताल और नौकुचियाताल से पानी की सप्लाई की योजना भी बनाई गई।
जिस रास्ते से नैनीताल में ट्रेन आनी थी। वो फेस वन में रानीबाग से लेकर ज्योलीकोट और फिर ज्योलीकोट से नैनीताल बलियानाले के पास से होनी थी। लेकिन हिमालयन जियोलॉजी की टीम ने जब इस रास्ते का सर्वे किया। तो पाया कि ये इलाका बेहद संवेदनशील है।