उत्तराखण्डकुमाऊं,

उत्तराखंड- 180 किलोमीटर, 5 अस्पताल, 1 मासूम की मौत: सैनिक पिता की करुण पुकार—‘देश की रक्षा की, लेकिन बेटे को नहीं बचा सका’

ग्वालदम/बागेश्वर- उत्तराखंड के सुदूरवर्ती ग्वालदम क्षेत्र से एक हृदयविदारक घटना सामने आई है, जो प्रदेश की बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं की सच्चाई को उजागर करती है। सेना में देश की सेवा कर रहे सैनिक दिनेश चंद्र जोशी ने अपने डेढ़ साल के मासूम बेटे शुभम को बचाने के लिए पांच अस्पतालों की दौड़ लगाई, लेकिन सिस्टम की लापरवाही ने उनका चिराग बुझा दिया।

 

 

इलाज के नाम पर सिर्फ रेफर—शुभम की मौत की दास्तान

शुभम की अचानक तबीयत बिगड़ने पर परिवार उसे सबसे पहले ग्वालदम अस्पताल लेकर गया, जहां न तो डॉक्टर मौजूद थे और न ही जरूरी इलाज की सुविधा। इसके बाद उसे बैजनाथ अस्पताल रेफर किया गया, लेकिन वहां भी सिर्फ निराशा ही हाथ लगी। मजबूरी में परिजन बागेश्वर जिला अस्पताल पहुंचे।

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बागेश्वर अस्पताल में लापरवाही का आलम

बागेश्वर अस्पताल में दिनेश जोशी ने जो अनुभव किया, वह चौंकाने वाला था। दिनेश के अनुसार, इमरजेंसी वार्ड में डॉक्टर मोबाइल में व्यस्त थे और नर्सें हंसी-मजाक कर रही थीं। इलाज की जगह शुभम को अल्मोड़ा रेफर कर दिया गया। और दुर्भाग्य की पराकाष्ठा यह रही कि बागेश्वर में दो घंटे तक एंबुलेंस भी नहीं मिली। अगर दिनेश ने जिलाधिकारी को फोन न किया होता, तो शायद एंबुलेंस भी नहीं मिलती।

 

 

अल्मोड़ा से हल्द्वानी तक का संघर्ष और अंत में टूटती सांसें

रात करीब 9:30 बजे एंबुलेंस मिलने के बाद परिजन अल्मोड़ा पहुंचे, जहां डॉक्टरों ने बच्चे को गंभीर हालत में हल्द्वानी रेफर कर दिया। हल्द्वानी में शुभम को वेंटिलेटर पर रखा गया, लेकिन 16 जुलाई को डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। इस पूरे घटनाक्रम ने एक पिता को तोड़कर रख दिया।

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सैनिक पिता का सिस्टम से सवाल—”मेरे बेटे को नहीं बचा सके, जिम्मेदार कौन?”

एनडीटीवी से बात करते हुए दिनेश जोशी ने कहा, “मैं देश के 144 करोड़ लोगों की रक्षा करता हूं, लेकिन अपने बेटे को नहीं बचा सका।” उन्होंने पूछा—”अगर एक सैनिक ड्यूटी में चूक करे तो कोर्ट मार्शल होता है, तो क्या स्वास्थ्यकर्मियों की लापरवाही पर कोई कार्रवाई होती है?”

 

 

जिम्मेदार कौन? स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोलती एक दर्दनाक घटना

दिनेश ने सवाल उठाया कि जब एक सैनिक और उसके परिवार को भी समय पर स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिलती, तो आम नागरिक की स्थिति क्या होगी? करोड़ों के बजट के बावजूद न तो अस्पतालों में स्टाफ है, न संसाधन। शुभम की मौत न केवल एक परिवार की निजी त्रासदी है, बल्कि पूरे सिस्टम की असंवेदनशीलता और नाकामी का पर्दाफाश भी करती है।

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निष्कर्ष:
उत्तराखंड की स्वास्थ्य सेवाओं पर यह घटना एक गहरा सवाल खड़ा करती है। अगर सिस्टम समय रहते हरकत में आता, तो शायद शुभम आज जिंदा होता। सवाल अब यह है—क्या इस लापरवाही पर कोई जवाबदेही तय होगी? या फिर एक मासूम की मौत बस एक आंकड़ा बनकर रह जाएगी?