उत्तराखंड के 13 जिलों में से 11 जिलों में ‘बाहरियों’ के जमीन खरीदने पर लगी पाबंदी, उत्तराखंड के नए लैंड-लॉ में क्यों दिख रही है इतनी सख्ती?
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उत्तराखंड में लगातार उठती मांग के बीच पुष्कर सिंह धामी सरकार ने बड़ा फैसला लेते हुए सख्त भू-कानून को मंजूरी दे दी। संशोधित ड्राफ्ट को मौजूदा विधानसभा सत्र में पेश किया जाएगा, जिसके बाद राज्य के बाहरी लोग देवभूमि में खेती और हॉर्टिकल्चर के लिए जमीन नहीं खरीद सकेंगे।
बीते दशकभर में इस राज्य में खेती-किसानी की जमीनें तेजी से अलग इस्तेमाल में आने लगी थीं, जिसके बाद इस तरह के कानून की मांग उठने लगी।
क्या है नए कानून में
– साल 2018 में रावत सरकार के बनाए हुए तमाम भूमि कानून रद्द किए जा चुके।
– स्टेट के 11 जिलों में बाहरी लोग खेती और बागवानी के लिए जमीन नहीं ले सकेंगे, इसमें हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर शामिल नहीं हैं।
– पहाड़ी इलाकों में जमीन पर नए सिरे से बात होगी।
– जिला मजिस्ट्रेट जमीन खरीदने पर मुहर नहीं लगा सकेगा।
– लैंड की खरीदी-बिक्री के लिए ऑनलाइन पोर्टल तैयार किया जाएगा ताकि डेटा व्यवस्थित रहे।
– पोर्टल से यह भी पता लगेगा कि कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं हो रही।
– बाहरी लोग अगर जमीन लेना चाहें तो उन्हें एफिडेविट देना होगा और मकसद बताना होगा।
– अगर कोई जमीन नियम तोड़कर खरीदी-बेची जाए तो सरकार उसे अपने कब्जे में ले सकती है।
इतनी सख्ती की क्यों पड़ी जरूरत
आजादी के बाद से उत्तरप्रदेश से बंटकर अलग राज्य बनने तक उत्तराखंड में जमीन खरीदने पर कोई रोकटोक नहीं थी। यहां तक कि स्टेट बनने के बाद भी इसपर खास एतराज नहीं लिया गया। नतीजा ये हुआ कि बाहरी लोग यहां आने और सस्ती जमीनें खरीदकर अपने मुताबिक इस्तेमाल करने लगे। धीरे-धीरे पहाड़ों के लोग परेशान होने लगे। चूंकि यहां टूरिज्म बहुत ज्यादा है, लिहाजा बाहरी लोग फार्म हाउस, होटल और रिजॉर्ट्स बनाने लगे. हालात ये हुए कि स्थानीय लोगों को खेती के लिए जमीन कम पड़ने लगी।
कितनी घटी खेती लायक जमीन
पहाड़ी इलाका होने की वजह से यहां खेती-किसानी उतनी आसान नहीं। कुछ ही इलाके हैं, जहां फसलें लगाई जा सकती हैं, वो भी सीढ़ीदार टेक्नीक के जरिए। ऐसे में उपजाऊ जमीनों पर होटलों के बनने से राज्य के पास फसलों की कमी पड़ने लगी। स्टेट बनने के दौरान यहां लगभग 7.70 लाख हेक्टेयर जमीन खेती लायक थी। वहीं दो दशकों में ये कम होते-होते 5.68 लाख हेक्टेयर रह गई। कई धांधलियां भी हुई. जैसे टिहरी में किसानों को मिली जमीन पर लैंड माफिया ने अवैध रूप से होटल और रिजॉर्ट्स बना लिए. जंगलों में भी ये गोरखधंधा चलने लगा।
अलग राज्य बनने के बाद स्थानीय लोगों का विरोध जमीन पर दिखने लगा। बाहरी इनवेस्टर्स ने कम कीमत पर या गड़बड़ियां करके स्थानीय लोगों की जमीनें ले रखी थीं। खेती लायक जमीनों पर कमर्शियल प्रोजेक्ट शुरू हो गए। स्थानीय लोगों के पास खेती-बाड़ी तो बची नहीं, ऊपर से बाहरी लोग चीप लेबर के लिए अपने लोगों को लाकर काम देने लगे। इससे लोकल्स में गुस्सा बढ़ा।
एक बड़ा डर डेमोग्राफी को लेकर भी दिखा
उत्तराखंड के लोगों को आशंका हो गई कि यही हाल रहा तो उनके ही राज्य में वे घट जाएंगे, जबकि दूसरे स्टेट के लोगों का कब्जा बढ़ जाएगा। दरअसल यहां बीते कुछ सालों में ही बाहरी राज्यों से आई आबादी चौंकाने वाली तेजी से बढ़ी। यहां तक कि कई मीडिया रिपोर्ट्स इसमें साजिश की बात भी करने लगीं। बता दें कि उत्तराखंड की सीमा चीन से भी सटी हुई है, जिसकी विस्तारवादी सोच का जिक्र जब-तब होता रहा। नेशनल सिक्योरिटी पर चिंता तो बढ़ी ही, साथ ही स्थानीय लोग भी रिसोर्सेज के बंटवारे पर नाराज रहने लगे।
पिछले कुछ समय से किसान और स्थानीय लोग बड़ी संख्या में लगातार प्रोटेस्ट कर रहे थे। खासकर उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़, हल्द्वानी और नैनीताल में किसान सड़क पर उतर आए और मांग करने लगे कि खेती वाली जमीनों की ब्रिकी, खासकर बाहरियों के लिए रोकी जाए।
लगभग सालभर से चल रहा था काम
पिछले साल ही सरकार ने नया कानून लाने का फैसला किया. इसके लिए एक हाई लेवल कमेटी बनाई गई, जिसका काम मौजूदा लैंड लॉ को देखना और नए सिरे से उसपर रिपोर्ट तैयार करना था। कमेटी की सिफारिश पर सरकार ने नया ड्राफ्ट बनाया, जिसमें कई बदलाव हुए जिससे राज्य में खेती की जमीनों को सुरक्षित रखा जा सके, साथ ही स्थानीय लोगों में बाहरियों के बढ़ने को लेकर गुस्सा न बढ़े।
लगभग तमाम पहाड़ी राज्यों में कानून
देवभूमि अकेली जगह नहीं, जहां खेती और हॉर्टिकल्चर पर सख्त कानून बन रहे हैं। ज्यादातर पहाड़ी राज्यों में ये नियम पहले से है। जैसे पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश को ही लें तो वहां राज्य के स्थाई निवासी ही खेती की जमीन खरीद सकते हैं। बाहरियों को इसके लिए स्पेशल पर्मिशन लेनी होती है, जो काफी मुश्किल है। इसी तरह से सिक्किम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश भी हैं, जहां फार्मिंग के लिए ही नहीं, ऐसे भी बाहरी राज्य जमीन नहीं ले सकते। ये इसलिए है ताकि वहां के मूल निवासियों का हक सुरक्षित रह सकें और रिसोर्सेज पर कब्जा न हो
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